क्यों औरों से अलग है शिक्षक की नौकरी
सारे मनुष्य एक से नहीं होते। किसी मनुष्य के दोनों हाथ एक से नहीं होते और किसी एक हाथ की सारी उँगलियाँ तो कतई बराबर नहीं होतीं। फिर भिन्न-भिन्न विभागों की नौकरियों में समानता की खोज क्यों? आइए पहले छँटनी करते हैं सरकारी नौकरियों में शहर और गाँव की नौकरी की। तो गाँव में हम कौन-कौन से पूर्णकालिक सरकारी सेवकों को देखते हैं? लेखपाल, सचिव, सफाईकर्मी और शिक्षक।
अब बात करते हैं इनकी सेवा परिस्थितियों में भिन्नता की। लेखपाल का आने का समय निर्धारित नहीं है। सचिव तो कई गाँवों के एक होते हैं। कब आते हैं, कब जाते हैं, पता नहीं चलता। आप किसी भी ग्रामीण से पूछिए कि पिछली बार लेखपाल और सचिव को कब देखा था? उत्तर देने के लिए उसे अपनी स्मृति पर पुरजोर दबाव डालना होगा। सफाईकर्मी की भी बात कर लेते हैं। उसके कार्य के घण्टे किसी को पता हैं? ये छोड़िए कार्यक्षेत्र का भी ज्ञान है और यदि है तो बताइए कि कितनी मुस्तैदी से आपके विद्यालय में वो कब और कितनी बार सफाई करने आता है?
अब किसी भी ग्रामीण को पकड़िए और उससे पूछिए कि आपने सरकारी विद्यालय के शिक्षक को पिछली बार कब देखा? उत्तर होगा कि लगभग प्रतिदिन ही आते-जाते देखते हैं। यह बिल्कुल नहीं कहा जा रहा कि लेखपाल, सचिव या सफाईकर्मी सरकारी सेवा में घोर लापरवाही करते हैं। ऐसा कुछ नहीं है सभी अपना कर्त्तव्य अपने तरीके से पूर्ण निष्ठा से निभा रहे हैं। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो व्यवस्था ही चरमरा जाएगी और चुनाव के समय तो इनमें से कई 24 घण्टे तक ड्यूटी करते हैं। कहा तो बस इतना जा रहा है कि शिक्षक की कार्य परिस्थितियाँ इन सबसे अलग हैं।
एक शिक्षक को प्रतिदिन अपने कार्यस्थल यानी विद्यालय पर जाना ही है और वो जाता ही है। लेकिन वो जाता किन मार्गों और कैसी परिस्थितियों में है इस पर चर्चा आवश्यक है। गर्मियों में विद्यालयों का समय सुबह 8 बजे तक का होता है। अधिक गर्मी होने पर कई बार कुछ समय के लिए 7 बजे भी विद्यालय जाना होता है। अधिकतर जनपदों के अंतिम विद्यालय मुख्यालय से 80 किमी तक होते हैं। 60 से कम कहीं नहीं होते और कई के 100 किमी तक भी। सोचिए इतनी दूरी वाले विद्यालयों में 07:45 तक विद्यालय पहुँचने के लिए कई शिक्षकों को 6 बजे भी निकलना पड़ता है। सुबह 6 बजे तक नहा-धोकर तैयार होने से लेकर निकलना खासा मुश्किल हो जाता है।
महिला शिक्षकों के लिए तो स्थिति और दुरुह है। उन्हें तो 6 बजे तक अपने छोटे बच्चों को नहला-धुलाकर तैयार करने, टिफिन बनाने और अपने सास-ससुर के लिए दिन भर का भोजन बनाकर रखने की भी जिम्मेदारी होती है। सोचिए ऐसे में 6 बजे निकलने के लिए उन्हें कितने बजे उठना होता होगा। यही समय जब 7 बजे का हो जाता है तब तो कई शिक्षक-शिक्षिकाओं को सुबह 05:30 और कुछ को तो 05:00 बजे भी घर से निकलना होता है। अर्द्धनिद्रा की अवस्था में ऐसे में कई लोग स्वयं ही वाहन चलाकर जाते हैं जोकि अपनेआप में जोखिम भरा है। परिस्थितिवश जो शिक्षिकाएँ अपने सास-ससुर के साथ नहीं रह रहीं उन्हें तो सुबह 6 बजे और कुछ को 5 बजे तक ही छोटे बच्चे तैयार करके पड़ोसी के घर छोड़कर आने पड़ते हैं जिससे उनके विद्यालय जाने के बाद जब बच्चों की स्कूल वैन आए तो वो जा सकें।
इन सब चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बाद भी अधिकांश शिक्षक समय पर विद्यालय पहुँचने का प्रयास करते हैं। परन्तु वे समय पर पहुँचें कैसे? जब 80 किमी की यात्रा में 6 रेल फाटक पड़ते हों। यहाँ तक कि ऐसे भी विद्यालय हैं जहाँ 30 किमी की दूरी में ही 4 रेल फाटक पड़ते हैं और औसतन 2 तो बंद रहते ही हैं। यदि कभी चारों बंद मिलें तो 10 मिनट प्रति फाटक की दर से समय से घर से निकला शिक्षक 40 मिनट देर से पहुँचता है और ऑनलाइन उपस्थिति के जमाने में कामचोर और लेटलतीफ कहलाएगा।
सड़क के उन जानलेवा गड्ढों की क्या ही कहें जो वाहनों की गति को तिहाई स्तर तक घटा देते हैं और चोट-चपेट का कारण अलग से बनते हैं। सर्दी के मौसम में कोहरे, शीतलहर, कम दृश्यता से पूरे मार्ग में गति का स्तर घट जाता है। एक घण्टे की दूरी सवा या डेढ़ घण्टे तक में पूरी हो पाती है और ऐसे में ऑनलाइन उपस्थिति की कसौटी पर शिक्षक 1 मिनट भी देर से पहुँचने पर पूरे दिन का वेतन खो देगा।
बारिश के मौसम के तो कहने ही क्या? तब यात्रा में तीन मोर्चों पर लड़ना पड़ता है। एक तो ऊपर से हो रही बारिश की मार, कम दृश्यता ऊपर से सड़क पर पानी से भरे गहरे गड्ढे और फिसलन भरे रास्ते। असली जंग तो गाँव में आरम्भ होती है जब कई सौ मीटर का रास्ता कच्चा होता है। तनिक सी बरसात में इन रास्तों पर अतिशय फिसलन होती है। घुटना, कमर और कहीं-कहीं तो गले तक जलभराव वाले विद्यालय हैं। ऐसे में एक मिनट की देरी पर पूरे दिन के लिए अनुपस्थित होने का नियम कतई उचित नहीं कहा जा सकता।
कई विद्यालय गाँव से बाहर एकांत में होते हैं। जहाँ साँप, नेवले, विषखपड़ा आदि जहरीले प्राणी पाए जाते हैं। ऐसे में आप तब उपस्थिति कैसे लगाएँगे जब विद्यालय के द्वार पर ही 5 फिटा काला साँप कुण्डली मारे बैठा हो। वास्तव में इन परिस्थितियों के बारे में सोचे बिना ही ऑनलाइन उपस्थिति का नियम बना दिया गया जो सर्वथा अनुचित है।
एक शिक्षक जो समय पर विद्यालय पहुँचे और अचानक उसका स्वास्थ्य खराब हो जाए या उसके किसी परिवारजन के दुर्घटना में घायल होने या अकस्मात स्वास्थ्य खराब होने की सूचना आए तो क्या शिक्षक 2 या 3 बजने की प्रतीक्षा करेगा अथवा शीघ्रातिशीघ्र स्वजनों तक पहुँचने का प्रयत्न करेगा। लेकिन यदि वो ऐसा करेगा तो ऑनलाइन प्रणाली उसे कर्त्तव्य विमुख की उपाधि प्रदान कर देगी।
अब तनिक सोचिए कि एक लेखपाल को किसी भूखण्ड की नपाई को जाना है और घनघोर वर्षा का आलम है तब क्या उसे निर्धारित समय पर जाना अनिवार्य होगा? नहीं वह अपनी सुविधानुसार बारिश रुकने और रास्तों के सुलभ होने की प्रतीक्षा करेगा। यह प्रतीक्षा कुछ घण्टों या दिनों की भी हो सकती है। गाँव में किसी सड़क के बजट बनाने के लिए आवश्यक सर्वेक्षण करने के लिए पंचायत सचिव दिसम्बर में सुबह आठ बजे के घने कोहरे में जाने का जोखिम नहीं लेगा वो मौसम के अनुकूल होने पर ही जाएगा।
लेकिन क्या एक शिक्षक के पास ऐसा विकल्प उपलब्ध है? नहीं, बिल्कुल नहीं, उसे तो प्रतिदिन एक निर्धारित समय पर विद्यालय पहुँचना ही है। परिस्थितियाँ चाहें जो हों, बाधाएँ चाहें जो आएँ और वो पहुँचता भी है। लेकिन जहाँ बड़े से बड़े वैज्ञानिकों की गणना के बाद निर्धारित तिथि और समय पर रॉकेट लॉन्च नहीं हो पाते। चाहें कितने भी वीआईपी हों मौसम के कारण उनकी फ्लाइट लेट हो जाती हो। रेल के तो कहने ही क्या वहाँ एक शिक्षक को पौने आठ तक पहुँचने पर उपस्थित और न पहुँच पाने पर अनुपस्थित घोषित करने की कौन-सी जिद है? हाल ही में टी 20 में विश्व विजयी भारत की क्रिकेट टीम को दो दिन खराब मौसम के कारण अनिच्छा से ही लेकिन विदेश में रुकना पड़ा था तब शिक्षक का ही घड़ी के काँटों से मूल्यांकन क्यों?
स्वतंत्रता के 77 वर्षों के बाद भी जब गाँवों में आज भी कच्ची सड़कें हैं, शहर की सड़कें गड्ढों से भरी हैं, रेलवे फाटकों पर अंडरपास या ओवरब्रिज की सुविधा नहीं है। जहाँ वर्षा ऋतु में जल निकास का कुप्रबंधन आर्थिक से लेकर राजनैतिक राजधानी तक के निवासियों को सता रहा हो वहाँ ऑनलाइन उपस्थिति के माध्यम से शिक्षकों का रिपोर्ट कार्ड बनाना शोषण के पर्याय सा मालूम पड़ता है।
शिक्षकों को विद्यालय की आठ किलोमीटर की परिधि या नियुक्ति वाले गाँव में ही रहने की सलाह देने वाले भी बहुत हैं। लेकिन शिक्षक एक सरकारी कर्मचारी होने के साथ-साथ किसी का पुत्र, किसी का पिता, किसी का पति या अन्य रिश्तों में भी बँधा है। शिक्षिकाओं के ऊपर इनसे भी अधिक जिम्मेदारी है। प्रति सप्ताह पिता का डायलिसिस कराने वाला शिक्षक कैसे ग्रामीण क्षेत्र में रहकर कार्य करे? जिसकी सास को हृदय का गम्भीर रोग है वो शिक्षिका कैसे मुख्यालय से 80 किमी जाकर बस जाए जहाँ से आपातकाल में शहर तक पहुँचते-पहुँचते ही कोई दम तोड़ दे। शहर में व्यापार करने वाले की शिक्षक पत्नी क्या परिवार त्यागकर गाँव में अकेली पड़ी रहे? अच्छा यही बता दीजिए कि जनपद के दो विपरीत छोरों पर तैनात और आपस में 160 किमी दूर विद्यालयों में कार्यरत शिक्षक दम्पत्ति कब मिलकर एक साथ रहें? ऐसे में मुख्यालय पर रहना मजबूरी हो जाता है।
शिक्षक को नौकरी छोड़ने की सलाह देने वाले भी बहुत हैं लेकिन ध्यातव्य रहे कि जो नए शिक्षक आएँगे उन्हें भी इन्हीं समस्याओं से रुबरू होना है। कुछ बदलेगा नहीं, तो फिर ऑनलाइन उपस्थिति की जिद क्यों? एक बार शिक्षक से भी तो पूछा जाना चाहिए कि उसकी समस्याएँ क्या हैं? उसके विरोध का कारण क्या है? जब तक लोकतंत्र है हम इसकी तो अपेक्षा कर ही सकते हैं।
एक बार आँकड़े माँगकर देखिए कि विगत वर्षों में कितने शिक्षक विद्यालय पहुँचने की शीघ्रता में काल-कलवित हो चुके हैं? अगर ऑनलाइन उपस्थिति यथारूप लागू हो गई तब तो ऐसी घटनाओं की बाढ़ ही आ जाएगी। इसलिए दुर्गम मार्गों, दूरियों और दुष्करताओं को ध्यान में रखते हुए आदेश का पालन कराने वालों को इस तथ्य पर विचार करते हुए निर्णय लेना चाहिए कि
क्यों औरों से अलग है शिक्षक की नौकरी
स्रोत–
शिक्षक प्रांजल सक्सेना जी की फेसबुक वॉल से